Monday, July 27, 2015

Transliteration of Munira Surati's review

हंसा, करो पुरातन बात

मुनीरा सूरती 

(रोज़नामा हिंदुस्तान, 14 फ़रवरी 2015, पेज 8) 

तरक़्क़ी पसंद तहरीक़ की पहली कॉन्फ्रेंस में सदर की हैसियत से दी गयी अपनी तक़रीर में मुंशी प्रेमचंद ने कहा था " एक अदीब का मक़सद सिर्फ महफ़िल सजाना या तफ़रीह का सामान जुटाना नहीं है, उसका दर्जा इतना न गिराइये। वो सियासत या वतन परस्ती के पीछे चलने  वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली हक़ीक़त है। जिस अदब से हमारे अंदर उन्दा ज़ौक़ न जागे हमारी रूहानी ज़ेहनी तस्कीन न हो, हमारे अंदर कुव्वत और तहरीक पैदा न हो।  जो खूबसूरती के साथ इश्क़ न जगाये जो हमारे अंदर खरी जद्दोजेहद और मुश्किलात पर फतह पाने का सच्चा हौसला न पैदा कर सके वो अदब आज हमारे लिए बेकार है।  हमारी कसौटी पर वही अदब खरा उतरेगा जिसमें ग़ौरो फ़िक्र का आला म्यार हो, आज़ादी का जज़्बा हो, ज़िन्दगी  की सच्चाइयों का उजाला हो, खूबसूरती का जौहर हो, जो हमारे अंदर तहरीक़ जद्दोजहद और इस्तेराब पैदा कर सके हमें सुलाये नहीं - क्यूंकि अब और सोना मौत की नशानी है।"

प्रेमचंद की इसी फ़िक्र और यकीन की बुनियाद पर कायम मोहतरमा ऋचा नागर और मोहतरम तरुण शुक्ल का थिएटर ग्रुप परख वजूद में आया है। जिसका मानना है की स्टेज और समाजी मसाइल पर गौरो फिक़् के दरम्यान एक गहरी बातिनी ताल्लुक़ है।  जिसे सिर्फ स्टेज और अदबी और तख्लीक़ात के ज़रिये ही देखा समझा और जिया जा सकता है।  हमारे अदब और कथाओं में वो बेस-बहा  मोती मौजूद हैं, जिन्हें ड्रामे की लड़ी में पिरो कर हम अपने समाज में पेबस्त ज़ुल्म जब्र न इन्साफ़ी  फ़िरक़बरियत, तासुब्ब और दूसरी पेचीदगियों  को देखने के लिए तीसरी नज़र पाते हैं।  जो हमारी सोच जज़्बे और फ़िक्र को नयी सिम्त फ़राहम करती है। 

बीसवीं सदी की आखिरी दहाई में दुनिया के कई मुमालिक में क़दीम रिवायत से अलग हटकर कहानियों और क़िस्सों को ड्रामाई शक़्ल में स्टेज पर पेश करने का चलन काफ़ी  मक़बूल हुआ है।  प्रोसीनियम थिएटर की तमाम रवायती बेड़ियों को तोड़ते हुए और ड्रामे की फ़न्नी खूबियों के साथ इन्साफ करते हुए इस जदीद नुक्ताहाये नज़र ने न सिर्फ पेशावर अदाकारों और मुफ्फक़ीरों बल्कि आम आदमी को भी अदाकारी के ज़रिये अपने समाज और उसकी तारीख और दुसरे पहलुओं को नए सिरे से दरियाफ्त करने की तरफ राग़िब किया है। 

परख थिएटर की भी कोशिश यही है की स्टेज के ज़रिये हम अपने अदब और समाज की बारीकियों को गहराई और ईमानदारी से समझें।  जिस अदब जिस समाज और तबके को पेश करता है, हम उसके वक़्त,अहद और पसमंज़र के साथ अपना जिस्मानी और रूहानी राब्ता क़ायम करते हुए ड्रामे के वसीले से उसके साथ  इन्साफ कर सकें। 

हम अपनी मस्बत फ़िक्र और रूहानी इरफ़ान को आपस में जोड़ कर एक ऐसी ज़बान तलाश करने की कोशिश करते हैं।  जिसके इज़हार में जिस्म सोचवासीरत और समाजी ज़िम्मेदारी आपस में जज़्ब होकर एक हो जाएँ।  डॉ. ऋचा नागर ने मुनीरा सूरती से गुफ़्तगू करते हुए कहा की वो मानती हैं की "अदाकार जब अपने जिस्म और इस तजुर्बे के सुपुर्द करता है तब वो मसला और मुआमला जिसे वो अपनी अदाकारी के ज़रिये से पेश कर रहा है उसके अंदरून या बातिन में दाख़िल हो जाता है। ये मश्क़ उसे अपने अंदरून  से रूबरू कर देती है और वो अपने उन पेश रफ़्ता ख़्यालात के नुक़्तए नज़र और अक़दार की नफ़ी कर सकता है। जो महदूद मुतासिब्ब होने की वजह से उसे हक़ीक़त के इरफ़ान से ग़ाफ़िल रखे हुए है। 
रफ़्ता-रफ़्ता ये आग ही उसे उन ज़ंजीरों से आज़ाद कर देती है।  जिसमे वो अपनी पिछली समाजी और मज़हबी तरबियत की वजह से क़ैद था, और इस तरह उसकी शख़्सियत में मसबत तब्दीली रुनुमा होती है।"

इसी मक़सद को मद्देनज़र रखकर  थिएटर ने मुंबई में अपनी पहली ड्रामाई पेशकश "हंसा, करो पुरातन बात !" तैयारी की है जो मुंशी प्रेमचंद की कहानी "कफ़न" का ड्रामाई  रूप है। इस ड्रामे की तैयारी अगस्त २०१४ को शुरू हुई और दिसम्बर २०१४ की २७ और २८ तारीख़ की शाम सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिशरीज एजुकेशन ऑडिटोरियम में पेश किया गया - ड्रामे की जुबां अवधी मुन्तख़िब की गयी।  ड्रामा देखने वालों में स्टेज की दुनिया की कुछ मशहूर हस्तियों में सौरभ शुक्ला, अतुल तिवारी, शेखर सेन, सादिया सिद्दीकी और फिल्म्फेयर अवार्ड याफ़्ता संजय मिश्रा शामिल थे - शो के बाद ऋचा और तरुण ने नाज़रीन के साथ तबाद्लाये ख़्याल  किया और उनके सवालों के जबाबात दिये। हॉल में मौजूद लोगों की मुत्तफ़िक़ा राय थी  उन्होंने कहानी कफ़न का ड्रामाई रूप कई बार देखा है मगर ऐसा जलवा कभी नहीं देखा, स्टेज पर १९३२ के गांव की जीती जागती दुनिया और ज़िन्दगी अपनी तमाम जुज़ियात के साथ इस क़दर ख़ूबी और फ़नकाराना महारत से तख़लीक़ की गयी थी की एक घंटे दस मिनिट तक नाज़रीन अपने मौजूदा ज़माने से कट गए थे। अदाकार कहानी के किरदारों में ज़म होकर उनके सुख दुःख, मस्ती, लाचारी, दोस्ती, बेज़ारी, ग़ुरबत, बेहिसी भूख कंगाली, काहिली, ख़ुलूस, मोहब्बत, खुदगर्ज़ी, गर्ज़ के छोटी से छोटी जुज़ियात के साथ इस तरह जीते हैं की महसूस होता है की वो उसी ज़िंदगी का हिस्सा हैं।  ड्रामा "हंसा करो पुरातन बात !" नाज़रीन को अपने बहाव में ले लेता है।  आप बुधिया(मुमताज़ शेख़) के साथ रोते हैं, माधव के साथ हँसते हैं और घीसू की काहिली मजबूरी और बहानो पर ऐसे यकीन करते हैं जैसे आप खुद घीसू हैं।  उनके साथ नाचते हैं गाते हैं आलू खाते हैं चोरी करते हैं। घीसू के कफ़न न खरीदने के बहाने, बेहिम्मति एहसासे निदामत, शर्मिन्दगी और फिर पेट की भूख़ और ख़ुद को ज़िंदा रखने की जिब्बिल्लत जो तमाम इंसानी अंकदार से हमेशा बरतर और बाला रहती है आपकी अपनी जिब्बिल्लत है। 
ड्रामे की लाइट डिज़ाइन, सेट डिज़ाईन और प्रॉप्स ग़ैर मामूली तौर पर नाज़रीन को कहानी के साथ जोड़ने में कामयाब हैं। 

अगर फ़नकार के फ़न की मेहराज ये है की वो अपने फ़न में डूबकर तहलील हो जाता है उसकी ज़ात उसकी शिनाख़्त उसकी हस्ती मिट जाती है वो खुद को फ़ना कर देता है तो ये जलवागिरी सबको खैरा कर गयी। खासतौर पर ड्रामे के दो कलाकार भगवानदास और आलोक पाण्डे स्टेज पर घीसू और माधव थे और उनके अलावा और तमाम कलाकार भी अपना जौहर दिखाने में कामयाब रहे। 

इस ड्रामे के अदाकार हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ़ शहरों के देहि इलाकों में रहनेवाले लोग हैं।  जिनमे मुंबई में घरेलू मुलाज़मत करनेवाली औरतें भी शामिल हैं ड्रामे की तैयारी तरुण कुमार की हिदायत कारी में अदाकारों और दूसरे फनकारों के  मामूली वसायल की मुश्किलों से गुज़रते हुए लगातार चलने वाले वर्कशॉप में अमलपज़ीर आई, वर्कशॉप की शुरुवात में कहानी कफ़न का हफ़्तों तक मुताला किया गया, कहानी के किरदारों की शख़्सियत के तमाम पहलुओं को अपनी अपनी दानिश्त से समझा गया उन पर बहस की गयी।  कहानी में मौजूद ज़मामें  समाज अक़दार तहज़ीब, जुबांन, जिओग्राफिआई, इलाकाई तारीख़ी, सियासी पहलुओं और हालात पर ग़ौरो फ़िक्र किया गया।  हिदायतकार तरुण कुमार की रहबरी में इन तमाम मौज़ूआत पर लगातार रौशनी डाली गयी। कहानी का ड्रामाई रूप रिहर्सल के दौरान शक़्ल पाता गया और निखरता गया। शो के कोई छः हफ्ते पहले स्क्रिप्ट ने फाइनल शक़्ल पायी। नौजवानों को हिदायत दी गयी थी की वो वर्कशॉप में पेश आने वाले और अपने ऊपर गुजरने वाले रोज़ मर्रा के तजुर्बे, तजज़िये एहसासात रोज़ाना रकम करते रहे।  इस काम के लिए उन्हें नोट बुक्स परख की जानिब से ही मुहैया कराइ गयी थी। ग्रुप में शामिल होने वाले हर उस फ़र्द को आज़ादी थी जो इस तजुर्बे से गुज़रना चाहता हो और हर फ़र्द को अपनी पसंद के किसी भी क़िरदार को अपने नुक़्तए नज़र के मुताबिक़ पेश करने की इजाज़त भी थी। 

हिदायतकार तरुण कुमार जिनकी तालीम व तरबियत , जी. कुमार वार्मा और हबीब तनवीर जैसे थिएटर की बुज़ुर्ग हस्तियों के सयाए-अतिफत में हुई।  "मोहन राकेश स्वर्ण पदक" याफ्ता हैं। उन्होंने १९८७ में पंजाब यूनिवर्सिटी से ड्रामा की कला में एम.ए  की डिग्री हासिल की है।  कई किताबों की अदीबा डा.ऋचा नागर यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनिसोटा में प्रोफ़ेसर हैं , दोनों समाज में होने वाले वाक़ये मज़लिम और न इंसाफी के मुख्तलिफ पहलुओं पर काम करने वाले संगतिन किसान मजदूर संगठन, सीतापुर, यू.पी से जुड़े हुए अपनी तहरीरों के साथ-साथ परख थिएटर के ज़रिये भी इन मसाइल को समाज के सामने पेश करने मसरूफ हैं।  इस मिशन की अवव्लीन कामयाबी उन्हें अमरीका में हासिल हुई जब परख थिएटर ने इस्मत चुगताई की कहानी "दो हाँथ" और असग़र वजाहत की कहानी "मैं हिन्दू हूँ" का  ड्रामे की शक्ल में लखनऊ  में भी पेश किया और दादे तेहशीन हासिल की। 

कफ़न का ड्रामाई रूप "हंसा,करो पुरातन बात !" इस कहानी से जुड़ कर इस तजुर्बे में उतरकर अपने ज़ेहनो दिल में पेवस्त गाँठो पर सवाल उठाते हुई इज्तिमाई सोचोफिक़्र से गुज़रते हुए पूरे ग्रुप ने एक बहुत एहम सफर तै किया। परख थिएटर के तख़लीक़ कार  ऋचा नागर और तरुण कुमार उम्मीद रखते हैं की ये इज्तिमाई कोशिश नाजरीन को कंही न कंही बांधेगी और आने वाले वक़्त में इस तरह की दीगर तख्लीक़ात के सहारे उन्हें अपने मसाइल समाज अपनी सोच और ज़ेहनीयत को तलाशने परखने और उनसे गहराई से जुड़ने के लिए रागिब करेगी।

Sunday, July 26, 2015

Reviews of 'Hansa, Karo Puratan Baat!'




Review by Arun Singh in SAMAVARTAN, February 2015, p. 87
Review by Munira Surati, ROZNAMA HINDUSTAN (Urdu), Mumbai 14 Feb 2015, p. 8
Devnagri transliteration available here

Tuesday, January 20, 2015

Staging 'Hansa, Karo Puratan Baat,' based on Premchand's 'Kafan'


Hansa, Karo Puratan Baat, a play in Awadhi whose title is inspired by a song of Kabir, is based on Munshi Premchand's last short story 'Kafan' ('The Shroud') which he first published in Urdu in 1935. The play, written and directed by Tarun Kumar, emerged from a six-month long theatre workshop in Mumbai, jointly organized by Richa Nagar and Tarun Kumar. The workshop brought together a group of 20 people to grapple with issues of caste, class, gender, and religion through a focus on Hindi/Urdu fiction. The workshop participants currently live in Mumbai but almost all of them grew up in rural areas of Uttar Pradesh, Madhya Pradesh, Harayana, Bihar, Jharkhand, Chhattisgarh, Karnataka, and Gujarat. While some of them aspire to become successful cinema actors, others work as domestic workers in the homes of film and television artists in the Yaari Road area of Mumbai and had never seen a play before participating in the workshop. In the last week of December 2014, the group performed four shows of Hansa before packed audiences, followed by long discussions between actors and audiences, at the D. V. Bal Auditorium in Versova, Mumbai.


Budhiya (Mumtaz Sheikh) and Madhav (Alok Panday)

Madhav (played by Gaurav Gupta here) and Budhiya  (Mumtaz)


Neeraj Kushwaha (on harmonium) leads the chorus with Satish Trivedi (on dholak), Akul Sangwan, Deependra, and Susheel Shukla



Men of the village (Gabbar Mukhiya, Anil Yadav, Gaurav Gupta, Avi Yadav and others) rejoicing and dancing as the chorus sings, Gagri Sambhalo, Aho Banwari.

Budhiya (Mumtaz) screams and writhes in pain

Ghisu (Bhagwan Das) and Madhav (Alok Panday) mourn the death of Budhiya